प्रकृति के साथ और सामंजस्य के बिना न जीवन संभव है और न जीवनानुभूतियों की अभिव्यक्ति। प्रकृति का संसर्ग हो तो सूर्य, चंद्रमा, चाँदनी, पेड़, पौधे, सावन, भादो, वसंत इत्यादि प्रकृति के तत्त्व जीवन-अंग के रूप में संचालित होने लगते हैं। बाहर का भीतर और भीतर का बाहर स्फुरित होता है और एकाकार हो प्रगट होने लगता है। इस काव्यसंग्रह 'बीच दिसंबर' में कवि की अनुभूति कुछ ऐसी ही प्रतीत होती है- कि पतझड़ को अंतत: हारना ही होता है। मौसम को मानवीय होना ही होता है। जीवन है; और इस जीवन के संचालन में तमाम तरह की स्थितियाँ, परिस्थितियाँ व व्यवस्थाएँ हैं तथा सभी की अपनी-अपनी सक्रियताएँ हैं। इस सक्रियता के बीच आम आदमी भी है, जिसकी अपनी बेचैनी है। लेकिन इस बेचैनी के साथ उसके अंदर बची है कचकचाट अर्थात् बड़बड़ाहट। यही कचकचाट आदमी के भीतर को बाहर प्रकट करती है। जो सूचक है होने का, उम्मीद के बने रहने का। प्रकृति का सदाबहार रंग भी आदमी की उम्मीदों के बने रहने की ही प्रतीति कराता है। जो इस काव्यसंग्रह में व्यक्त हुआ है- जरा सी भी डूब रोशनाई बची हुई है/ समूचे समय को ढूँठ नहीं कहा जा सकता! रोजमर्रा के सवालों से दो-चार करती इस संग्रह की कविताएँ स्थापित व्यवस्थाओं से भी सीधे सवाल करती हैं। इन सवालों को प्रकृति के साथ-साथ साधारणता में प्रयुक्त वस्तुओं और आंचलिक बिंबों के माध्यम से अभिव्यक्ति दी गयी है। सरल शब्दों में वैचारिक गांभीर्य को समेट लेना कवि की रचना-क्षमता को इंगित करता है। भाषा की सहजता व सरलता इस काव्य-संग्रह की विशिष्टता है जो कलकल बहती नदी की तरह प्रवाहमान है।
About the Author:जन्म : 6 जून, 1961 को ग्राम जैंती (रानीखेत), जनपद अल्मोड़ा, उत्तराखंड। शिक्षा : पी-एच.डी. (हिंदी)। लंबे समय से मजदूर आंदोलन और कुष्ठ रोगियों के मध्य कार्य। संस्कृति कर्म में सक्रिय। उत्तराखंड आंदोलन के दौरान जेल यात्रा। किशोरावस्था से ही अनेक फुटकर नौकरियाँ एवं पत्रकारिता। प्रकाशन : हलफ़नामा (उपन्यास); या, तो, कुढब कुबेला, बीच दिसंबर (कविता-संग्रह); यहीं कहीं से, यहाँ बर्फ गिर रही है (कहानी संग्रह)। संपादन : द्वार तथा इन दिनों (साहित्यिक सांस्कृतिक पत्रिकाएँ)। सम्मान : परंपरा सम्मान, शब्द साधक सम्मान, आचार्य निरंजननाथ सम्मान, परिवेश सम्मान, अंबिका प्रसाद दिव्य सम्मान, वर्तमान साहित्य सिसौदिया सम्मान, शैलेश मटियानी कथा-स्मृति सम्मान।