पत्रकारिता, खासतौर पर हिंदी पत्रकारिता, आज जिस भीषण दौर से गुजर रही है वह अकल्पनीय है। समूचे मीडिया पर कॉरपोरेट ताकतों का कब्जा हो गया है और सत्ता के साथ उनका तालमेल स्थाई बनाए रखने की कोशिश में मीडिया ने जनता के पक्ष को पूरी तरह दरकिनार कर दिया है। धर्म के आधार पर सत्ताधारी पार्टी जिस तरह के ध्रुवीकरण में लगी है उसमें उसके पक्ष में जनमत तैयार करने में प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने सारी हदें तोड़ दी हैं। कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका पर निगरानी रखने के उद्देश्य से निर्मित यह चौथा स्तंभ आज इतना बेलगाम हो गया है कि अब इस पर निगरानी रखने के लिए किसी और 'स्तंभ' की जरूरत है। पिछले कुछ वर्षों की तस्वीर देखें तो मीडिया ने धर्मांधता, अल्पसंख्यकों, खासतौर पर मुसलमानों के प्रति नफरत तथा पाकिस्तान के संदर्भ में युद्धोन्माद फैलाने, भ्रामक सूचनाओं और अंधराष्ट्रवाद के जरिए समाज के एक तबके को पागल भीड़ में तब्दील करने और दलितों, महिलाओं तथा वंचित तबकों को और भी ज्यादा हाशिये पर ठेलने में सत्ताधारी पार्टी को मदद पहुँचायी है। इसका सबसे खतरनाक पहलू निरंतर बढ़ रही सांप्रदायिकता में दिखाई दे रहा है। इस संकलन के लेखक का मानना है कि आज जो स्थिति सामने है, वह आकस्मिक नहीं है बल्कि उन प्रवृत्तियों की परिणति है जो 1980 के दशक से ही मीडिया में प्रकट हो गयी थीं। आश्चर्य नहीं कि लेखक ने 1984 में ही हिंदी पत्रकारिता के 'हिंदू पत्रकारिता' में तब्दील हो रहे खतरे की तरफ संकेत किया था।
About the Author:पेशे से लेखक-पत्रकार। 1966 से विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में काम किया। 1970-74 से आकाशवाणी दिल्ली के हिंदी समाचार विभाग से संबद्ध रहे। 1970 से 1975 तक साप्ताहिक 'दिनमान' में नियमित लेखन किया। जनपक्षीय पत्रकारिता और वैकल्पिक मीडिया विकसित करने के उद्देश्य से 1980 में समकालीन तीसरी दुनिया का संपादन-प्रकाशन शुरू किया। 1974 में उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के प्रथम जनतांत्रिक चुनाव की दैनिक 'जनसत्ता' में रिपोर्टिंग की। लगभग पाँच वर्षों तक 'जनसत्ता' में समाचार-विचार नाम से मीडिया पर एक साप्ताहिक कॉलम लिखा। 1990 के दशक के प्रारंभिक वर्षों में दिल्ली यूनियन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट (डीयूडब्ल्यूजे) के अध्यक्ष। अनेक महत्त्वपूर्ण पुस्तकों का संपादन व अनुवाद किया : आज का भारत (रजनी पामदत्त), भारत का स्वाधीनता संग्राम (ई.एम.एस. नंबूदिरिपाद), भारतीय जेलों में पाँच साल (मेरी टायलर), प्राचीन भारत में राजनीतिक हिंसा (उपिंदर सिंह), माओ त्सेतुङ का राजनीतिक दर्शन (मनोरंजन मोहंती), औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति (न्गगी वा ध्योंगों), तीसरी फसल (पी.साईनाथ), भारत में बंधुआ मजदूर (महाश्वेता देवी), तानाशाह की कैद में (केन सारो-वीवा), लाल पोस्ते के फूल (अ लाए), अमिल्कर कबरालः जीवन-संघर्ष और विचार, हिंसा (फेस्टस इयायी) आदि।