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जगत् और जागृति के लेखक : हजारीप्रसाद द्विवेदी
2005 में बी एच यू, वाराणसी के हिन्दी विभाग में लगभग एक दर्जन अध्यापकों की नियुक्ति हुई थी। नियुक्त करने में नामवर सिंह की मुख्य भूमिका थी। हिन्दी विभाग उम्मीदों से चमक उठा था। लम्बे समय से चली आ रही उदासी छँटी थी और नवनियुक्तों की क्षमता पर भरोसा जताया जा रहा था। लगने लगा था कि अब यह विभाग फिर से नए-नए मुकाम हासिल करेगा। इस घटना के सत्रह बरस गुज़र चुके हैं और कहा जा सकता है कि इस बीच विभाग की उपलब्धियाँ बढ़ी हैं।

इन्हीं अध्यापकों में ग़ाज़ीपुर की नौकरी से आए थे – श्रीप्रकाश शुक्ल। वे कवि के रूप में पहले से ख्यात हो चुके थे। ‘परिचय’ पत्रिका के संपादक के रूप में आगे चलकर उन्हें यश-अपयश की मिश्रित राशि प्राप्त होती रही। इसी पत्रिका का एक विशेषांक आया था आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की जन्म-शताब्दी पर 2007 में। बहुत उत्साह से इसकी तैयारी हुई और उससे ज्यादा उत्साह से इसका विमोचन हुआ। 2007 में मौजूद कई महत्त्वपूर्ण लेखकों के लेख इस विशेषांक में सम्मिलित हुए थे। हिन्दी लेखन में टोले-मुहल्ले की संस्कृति के प्रभाव या किसी अन्य संकीर्ण कारण से यह संभव नहीं हो पाता कि आप किसी विषय पर अपने समय के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण लेखकों के लेख प्राप्त कर कोई विशेषांक निकाल सकें। इस अंक में एक लेख चौथीराम यादवजी का भी होना चाहिए था। उनकी एक किताब हजारीप्रसाद द्विवेदी पर पहले से मौजूद है और वे उसी हिन्दी विभाग का हिस्सा रहे हैं।

2021 में ‘परिचय’ पत्रिका का वही विशेषांक ‘पुनर्नवा’ होकर सेतु प्रकाशन से छप कर आया है। इसमें श्रीप्रकाश शुक्ल की लिखी हुई एक नयी और लंबी भूमिका है – ‘हजारीप्रसाद द्विवेदी : एक जागतिक आचार्य’। जिस तरह आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ‘कुटज’ की अपराजेयता में अपने व्यक्तित्व को देखने और प्रेरित होने की कोशिश की थी उसी तरह श्रीप्रकाश जी ने आचार्य के लेखकीय व्यक्तित्व में अपने ‘जागतिक’ व्यक्तित्व को देखने की कोशिश की है। यह भूमिका अभी तो आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी को आधार बनाकर लिखी गयी है मगर आगे चलकर यह भूमिका श्रीप्रकाश शुक्ल के लेखकीय व्यक्तित्व की आकांक्षा को समझने में मददगार होगी। वे लिखते हैं , “उनकी ‘संपूर्ण जागृति’ में यह ‘जगत्’ है और उनके ‘संपूर्ण जगत्’ में यह जागृति है।” संसार के प्रति सचेत होकर जीना और लिखना! श्रीप्रकाश जी ‘जागतिक’ शब्द में ‘जगत्’ और ‘जागृति’ – दोनों को समाहित करके अर्थ निकालते हैं। यह उनके द्वारा निकाला गया अपना अर्थ है, पर है व्याकरण-विरूद्ध! ‘जागतिक’ का सम्बन्ध ‘जगत्’ से तो है मगर ‘जागृति’ से नहीं। मगर यह बनारस है, यहाँ सब ‘गुरु’ हैं और श्रीप्रकाश जी तो विधिवत् ‘गुरु’ हैं। व्याकरण को चुनौती देना ‘आचार्यों’ की शोभा बढ़ाता है और भाषा इससे गति प्राप्त करती है! ‘जागृति’ के लिए श्रीप्रकाश जी तर्क देते हैं – ‘जगता ब्रह्म की तर्ज़ पर’। यहाँ भी ‘की’ के बदले ‘के’ होना चाहिए था मगर बनारस में ‘लालच’, ‘गुस्सा’, तर्ज़’ जैसे पुलिंग शब्दों को स्त्रीलिंग में इस्तेमाल करते हैं। और वे करते हैं तो करते हैं आप क्या बिगाड़ लीजिएगा?

‘हजारीप्रसाद द्विवेदी : एक जागतिक आचार्य’ पुस्तक में कुल 28 लेख हैं। इस पुस्तक के पहले 1967 में द्विवेदी जी के साठ बरस पूरे करने पर शिवप्रसाद सिंह के संपादन में पुस्तक आयी थी – ‘शान्तिनिकेतन से शिवालिक’। कहा जा सकता है कि द्विवेदीजी को समझने में जैसे ‘शान्तिनिकेतन से शिवालिक’ पुस्तक का अब तक महत्त्व रहा है उसी तरह से ‘हजारीप्रसाद द्विवेदी : एक जागतिक आचार्य’ पुस्तक आनेवाले समय में महत्त्वपूर्ण हो जाएगी।

इस पुस्तक के लेखकों के दायरे का विस्तार ठीक-ठाक है। अत्यंत बुजुर्ग से लेकर बिल्कुल नए लेखकों के लेख इस पुस्तक में संकलित हुए हैं। रमेश कुंतल मेघ, बच्चन सिंह और अरुणेश नीरन के लेख तो इन दोनों पुस्तकों में हैं। मतलब यह कि चालीस वर्षों के अंतराल पर इन तीनों लेखकों ने द्विवेदी जी पर फिर से विचार किया है। आज 2021 तक तो इस पुस्तक के कई लेखक दिवंगत हो चुके हैं। 2007 में जब यह विशेषांक आया था तब वैभव सिंह, मनोज सिंह, रामाज्ञा शशिधर, विनोद तिवारी आलोचक के रूप में नए थे। रविशंकर उपाध्याय तो विद्यार्थी थे। कहने का अर्थ यह है कि नित्यानंद तिवारी, शिवकुमार मिश्र, खगेन्द्र ठाकुर, विश्वनाथ त्रिपाठी जैसे वरिष्ठों से लेकर विद्यार्थी तक के लेख इस विशेषांक में शामिल करके संपादक ने द्विवेदी जी का मूल्यांकन कई पीढ़ियों से करवाने का प्रयास किया है।

द्विवेदी जी पर विचार के प्रायः निम्नलिखित बिंदु रहे हैं – उपन्यास, निबंध, इतिहास और आलोचना। इन बिन्दुओं पर खूब लिखा-बोला गया है। यह पुस्तक कुछ नए विषयों को भी उठाती है। इस पुस्तक में बसन्त त्रिपाठी का लेख है – ‘दलित विमर्श के संदर्भ में द्विवेदी जी के कबीर’। डॉ। धर्मवीर को जवाब देने और द्विवेदी जी के पक्ष को रखने की कोशिश इस लेख में हुई है। वीरेन्द्र मोहन ने द्विवेदी जी के कवि-रूप पर विचार किया है। बाल साहित्य के सन्दर्भ में रविशंकर उपाध्याय ने विचार किया है। रामाज्ञा शशिधर का लेख ‘फूलों की दुनिया में द्विवेदी जी’ अपने ढंग का है। द्विवेदी जी के लेखन में फूलों का उपयोग प्रत्यक्ष विवरण के साथ रूपक में जिस तरह से हुआ है उसे इस लेख में सुन्दर तरीके से व्यक्त किया गया है।

द्विवेदी जी के उपन्यास, निबंध, इतिहास और आलोचना के पक्ष पर लिखे गए आलेख इस तरह से संयोजित किए गए हैं कि संपूर्ण मूल्यांकन की संभावना बन सके। इसके संस्मरणात्मक आलेख इस पुस्तक को जीवंतता प्रदान करते हैं। विश्वनाथ त्रिपाठी, रमेश कुंतल मेघ, बच्चन सिंह के संस्मरण द्विवेदी जी के जीवन-संघर्ष को इस तरह व्यक्त कर रहे हैं कि उनकी सहायता से द्विवेदी जी के साहित्य को समझने में सुविधा हो! यह उल्लेखनीय है कि इस पुस्तक में ऐसे लेखक भी हैं जिन्होंने द्विवेदी जी को करीब से देखा-समझा था और ऐसे लेखक भी हैं जिन्होंने द्विवेदी जी को देखा तक नहीं था।

श्रीप्रकाश शुक्ल की लिखी भूमिका में कुछ सूत्र ऐसे हैं जिनकी सहायता से द्विवेदी जी को समझने में मदद मिल सकती है –

· जगत, मनुष्य व रीढ़ की अवधारणा
· इस ‘मानव चित्त’ ने द्विवेदी जी के भीतर इतिहास का विवेक दिया व परंपरा का बोध
· ‘मंत्रविद्’ होने से ज्यादा महत्त्वपूर्ण होता है ‘आत्मविद्’ होना
· संस्कृति, परंपरा का पार्श्व है। यह अनिवार्यतः सामासिक है
· ‘कॉमनसेन्स’ किसी कलाकार की समाधि अवस्था है
· द्विवेदी जी एक ‘बौद्ध पुरुष’ हैं और शुक्ल जी ‘वैदिक पुरुष’

बात हिन्दी विभाग से शुरू हुई थी। अब समापन भी उसी से। श्रीप्रकाश जी 2020 में 15 बरस गुजार देने के बाद उस हिन्दी विभाग के बारे में कुछ शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। ये शब्द श्रीप्रकाश जी से भी जुड़े हैं और द्विवेदी जी से भी –

· कोंचना हिन्दी विभाग का स्वभाव है और कुरेदना इसकी उपलब्धि
· औरेबियत और औघड़पन इसकी नींव में समाहित है
· लालित्य और छालित्य के साथ सनातन और अधुनातन का यहाँ अद्भुत् समन्वय रहा है
· स्वीकार्यता से यह कोसों दूर रहता है और भर दिन मत्सरी वृत्ति में लिपटे रहना इसकी नियति है

हिन्दी विभाग के बारे में कहे गए ये शब्द द्विवेदी जी के कटु अनुभवों से जुड़े हुए हैं। इन्हीं के बीच से रचने वाले रच लेते हैं और न रच पाने वालों के पास अपनी असमर्थता को छिपाने के तो असंख्य बहाने हैं ही! और रचने वालों की ऐसी की तैसी करने में ‘मत्सरी वृत्ति’ की सहायता तो मिल ही जाएगी! श्रीप्रकाश जी ने एक नया शब्द यहाँ भी जोड़ा है – ‘छालित्य’। यूँ तो यह ‘छल’ से जुड़ा अर्थ दे रहा है, मगर है नया। उस विभाग की विशेषता को बताने के लिए श्रीप्रकाश शुक्ल इस शब्द को गढ़ते हैं। ‘लालित्य’ के साथ इस शब्द को पढ़ना चाहिए। यह विभाग आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से लेकर आज तक के अपने रचयिताओं के साथ लालित्य-पूर्वक छल करता रहा है। उसके छल का ललित-रूप आपको बहुत दिनों तक भ्रमित किए रहेगा कि आप छले जा रहे हैं या सराहे जा रहे हैं!