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स्मृति का उजाला (तद्भव पत्रिका (अंक 43) में छपी पुस्तक 'अगले वक़्तों के हैं ये लोग' की समीक्षा)
संस्मरण क्यों लिखे जाते हैं? क्या उनके बहाने अपने पूर्वजों का ऋण स्वीकार करना ही संस्मरणों का उद्देश्य होता है? क्या वे जितनी संस्मृतों के बारे में होते हैं लगभग उतने ही संस्मरणकार के बारे में भी? क्या संस्मरणों से इतिहास की अपेक्षा करना अनुचित है? कवि और आलोचक अशोक वाजपेयी के संस्मरणों की पुस्तक अगले वक्तों के हैं ये लोग पढते हुए कथेतर साहित्य से जुड़े ये सवाल फिर खड़े हो जाते हैं। सुदीर्घ और व्यापक सार्वजनिक जीवन में रहे अशोक वाजपेयी के ये संस्मरण विगत पचास पचपन सालों के सांस्कृतिक परिदृश्य पर भी टिप्पणी हैं। अस्सी के दशक में भोपाल के भारत भवन के पुरस्कर्ता रहे अशोक वाजपेयी की गहरी दिलचस्पी साहित्य और कलाओं के सार्वजनीकरण में रही। वे भारत भवन और अन्यान्य संस्थाओं के मार्फत यह कोशिश करते रहे कि कलाकारों और साहित्यकारों की सार्वजनिक उपस्थिति बढ़े और समाज में साहित्यप्रेमी रसिक लोगों की संख्या बढ़े। स्वाभाविक ही था कि इसके लिए उन्होंने विभिन्न कलाकारों और साहित्यकारों का सहयोग लिया। अगले वक्तों के हैं ये लोग में सिर्फ इन्हीं लोगों का विगत नहीं है, यहां मुक्तिबोध जैसे लेखक भी हैं जिनकी पहली पुस्तक ही उनके निधन के बाद छप सकी।

अशोक वाजपेयी के संस्मरणों की पहली विशेषता है संस्मृत के अवदान पर आलोचनात्मक निगाह। वे किसी व्यक्तित्व की आभा से मुग्ध होते हुए भी उसके अवदान का मूल्यांकन करते हुए भूलते नहीं कि व्यापक परंपरा में संस्मृत की जगह कहां होगी (यदि कोई है तो), साथ ही देशकाल के प्रसंग में भी उसके योगदान को देखने का प्रयत्न इन संस्मरणों को खास बनाता है। व्यक्तित्वों के आकर्षण में चुटीले प्रसंग खोजना और उन्हें चमकीली भाषा में प्रस्तुत करना संस्मरणों को लोकप्रिय बनाने का अचूक नुस्खा है लेकिन वाजपेयी को इसकी आवश्यकता नहीं है। अपने संस्मतों के व्यक्तित्वों की गंभीरता का समूचा तापमान इन संस्मरणों में मौजा है। पस्तक का प्रारंभ अज्ञेय पर लिखे संस्मरण से होता है जिसे उन्होंने गरेका हार्तिकता से रचा है। भारत भवन के संबंध में ही अज्ञेय और वाजपेयी के संबंध तनावपर्ण दो गए थे और 'बढा गिद्ध क्यों पंख फैलाये' जैसे समीक्षा लेख के कारण अज्ञेय से उनकी टी दिखाई देती थी। संबंधों की इस तनी हुई रस्सी पर वाजपेयी संतुलन साधने के बजाय अडिग और अविचल रहकर अज्ञेय के व्यक्तित्व का बखान करते हैं। सागर विश्वविद्यालय में छात्र जीवन के दौरान ही वे अज्ञेय के संपर्क में आ गए थे और उनके पाठक प्रशंसक हो गए थे। प्रशासनिक सेवा में आने के दौरान और तदुपरांत अनेक छोटे बड़े प्रसंगों के कारण अज्ञेय और उनमें दूरियां बढ़ती गईं। वाजपेयी ने लिखा है, "सैद्धांतिक स्तर पर वे सत्ता की संस्कृति में हस्तक्षेप से कतई और उचित ही, असहमत थे। मेरी असफलता यह थी कि मैं उन्हें या उन जैसे कुछ औरों को यह नहीं समझा पा रहा था कि मध्य प्रदेश में सांस्कृतिक विकास का एक बिलकुल नया मॉडल विकसित हो रहा था जिसमें सरकार का धन और साधन थे पर हस्तक्षेप बिलकल नहीं। यह भी कि एक लेखक होने के नाते मैं सरकार के किसी भी हस्तक्षेप को बीच में रोक लेता था। यही नहीं, स्वयं संस्कृति विभाग अपनी स्वायत्त संस्थाओं को पूरी स्वतंत्रता के साथ काम करने दे रहा था। हस्तक्षेप होता तो स्तरधर्मिता नहीं हो सकती थी जिसके लिए इन संस्थाओं की कीर्ति फैल रही थी। पर प्रवाद यह व्याप्त था कि सभी संस्थाएं मेरे कड़े और लगभग निजी नियंत्रण में हैं। इसलिए अगर उनमें कोई गड़बड़ी हो तो उसके लिए अक्सर दोषी और जवाबदेह मैं मान लिया जाता था।" वामपंथी लेखक संगठनों ने भारत भवन का बहिष्कार किया था और यहां की गतिविधियों को कलावादी गतिविधियां मानकर उन्हें समाजविरोधी प्रतिक्रियावादी वाग्विलास घोषित करने का चलन था। अब रोचक बात यह है कि कलावादी लेखन के पुरोधा माने जाने वाले अज्ञेय इस भारत भवन और यहां की गतिविधियों पर अपने विरुद्ध संदेह की दृष्टि रखते थे। वाजपेयी ने लिखा है, "विडंबना यह थी कि हम पर अज्ञेय की मूल्यदृष्टि का विलंबित और अधिक चालाक संस्करण होने का आरोप लगता रहा जबकि अज्ञेय हमसे मुंह फेरे बैठे थे। दूसरी ओर बावजूद संघों के प्रस्तावों

और सेंसर के, प्रमुख प्रगतिशील लेखक हमारे साथ सहयोग करते रहे। अज्ञेय के साथ हमारी स्थिति नाजुक बनी हई थी।" अंतत: इला जी के प्रयासों से अज्ञेय भारत भवन की गतिविधियों में आने के लिए तैयार हए और यह उनके जीवन का भी अंतिम दौर ही था। अज्ञेय आए और उन्होंने अपनी अप्रासंगिकता (उपेक्षा?) पर टिप्पणी भी की। अशोक वाजपेयी ने इस समूची स्थिति पर लिखा, "क्या अज्ञेय की नियति में, बिना पढ़े अप्रासंगिक मान लिए जाने में हम कई लोगों की भी नियति का पूर्वाभास नहीं है? एक ऐसे समाज में, जो इतने बड़े लेखकों को उनकी कृतियों के पढ़े समझे जाने की बुनियादी सुविधा न दे, लिखते रहना किसी हद तक साहस और क्या किसी हद तक ट्रेजिक लाचारी का मामला नहीं है?" इस संस्मरण का समापन अज्ञेय के निधन प्रसंग से हआ है जहां चिता की लपटों में अज्ञेय विदा हो रहे थे और संस्मरणकार की टिप्पणी थी, "राग विराग के तीस वर्ष मेरे अंदर जैसे धीरे धीरे खाक हो रहे थ। कुछ था जो मेरे भीतर भी जलकर भस्म हो रहा था। भरी दोपहर में मैं सूर्यास्त देख रहा हममें से कई उनकी देह को भस्मावशिष्ट होते देखते हुए मन ही मन पा लागन कर रहे थे।"

शमशेर बहादुर सिंह, त्रिलोचन और मुक्तिबोध पर लिखे गए संस्मरणों में तनाव के ये प्रसंग नहीं हैं लेकिन इन संस्मरणों को पढकर पाठक के मन में इन मूर्धन्य कवियों के प्रति सम्मान और श्रद्धा का भाव गहरा होता है। जाहिर है वाजपेयी किसी श्रद्धा की फलश्रति के लिए संस्मरण नहीं लिख रहे लेकिन यहां आए प्रसंग और वर्णन की हार्दिकता से ऐसा होता है। क्रूर और असंवेदनशील होते जा रहे मनुष्य समाज में स्मृतियां ऐसा काम करें तो यह साहित्य के लिए शुभ ही है। अच्छी बात यह भी है कि वाजपेयी संस्मरणों के बहाने किसी कलुष का संधान व उत्खनन नहीं करते बल्कि संस्मृतों के उज्ज्वल और गहरे मानवीय पक्षों को फिर फिर खोलने में उनकी रुचि दिखाई देती है। जैसे शमशेर जी के लिए वे लिखते हैं, "यह शमशेर का स्वभाव था वे अपने कवि स्वभाव से सर्वथा विपरीत कवियों जैसे मुक्तिबोध को भी बहुत शिद्दत और ईमानदारी से पसंद करते और उनके लिए लड़ सकते थे।" उनकी कविताओं को याद करते हुए जीवन के आलोक में इस टिप्पणी को देखिए, "बहुत सारे अभावों के बावजूद शमशेर का जीवन अधूरा नहीं था। इतनी सारी अधपंक्तियों और अधर में लटके शब्दों के बावजूद शमशेर की कविता मुकम्मल है। एक आदमी के रूप में शमशेर भले जिंदगी भर अपने को खयाल से भी कम समझते रहे हों पर यह स्पष्ट है कि उनमें अद्वितीय पूर्णता थी।" इसी तरह जब वे त्रिलोचन को याद करते हैं तो उनकी 'निपट मानवीयता' का रेखांकन नहीं भूलते और यह भी लिखते हैं कि "हिंदी की परंपरा के अनुरूप उन्हें वह सब नहीं मिला जिसके कि वे सर्वथा सुपात्र थे।" मुक्तिबोध पर लिखा गया संस्मरण किंचित घटना बहुल है और उसमें मुक्तिबोध के व्यक्तित्व की भी अनेक परतें खुलती हैं। मसलन उनका अत्यंत साधारण जीवन और उनका 'अपने असली कद से बेखबर' होना। यहां एक रेलयात्रा में मुक्तिबोध और अशोक वाजपेयी भोजन प्रसंग भी आया है जिसे मुक्तिबोध की अत्यंत साधारण जीवन स्थिति और वाजपेयी जी की गहरी नैतिकता के लिए याद रखा जा सकता है।

परसाई जैसे विचारधारा के लिए प्रतिश्रुत लेखक पर लंबा संस्मरण पढ़ना अनेक पाठकों के लिए प्रीतिकर अनुभव हो सकता है क्योंकि वाजपेयी न केवल परसाई के संबंध में अनेक प्रशंसात्मक टिप्पणियां लिखते हैं अपितु अपने कार्यों की सिद्धि में परसाई के 'प्रोत्साहन के बल' को भी श्रेय देना जरूरी समझते हैं। उन्होंने लिखा है, "परसाई की लड़ाई खुली लड़ाई थी, उसमें छिपकर वार करने की युक्ति कभी शामिल नहीं हो पाई।" और, “पवित्रता को लेकर इतने अधिक छद्म परसाई के सामने थे कि वे उसके विरुद्ध हमेशा ही फरसा लिए खड़े नजर आते हैं। उन्हें किसी पवित्रता की खोज न थी। वे तो साधारण ईमानदारी, हिम्मत और पारदर्शिता में भरोसा रखते थे।" और भी देखिए, "भारत के सार्वजानिक जीवन में स्वतंत्रता के बाद स्थापित लोकतंत्र के कुछ लेखक प्रामाणिक साक्षी कहे जा सकते हैं, परसाई उनमें से थे।" लोकतंत्र की कसौटी पर ही वे जैसे कृष्णा सोबती के मुरीद हैं और उनके लेखकीय व्यक्तित्व से कहीं अधिक उनकी निर्भीकता और जागरूकता के प्रशंसक दिखाई देते हैं। निर्मल वर्मा पर लिखा गया संस्मरण पुस्तक के अच्छे संस्मरणों में है जिसमें संस्मृत के प्रति संबंधों का राग विराग पारदर्शी ढंग से आया है। वाजपेयी जहां निर्मल जी के गद्य और चिंतन के प्रशंसक हैं वहीं जीवन के उत्तरार्ध में उनकी भारत व्याकुलता और कांग्रेस दुराग्रह के प्रति आलोचक। निर्मल वर्मा पर पूर्वग्रह का विशेषांक और पुस्तक संपादित करने वाले वाजपेयी याद करते हैं कि 'कड़े शब्दों में महर्षियों, भगवानों, साईं बाबाओं, बालयोगियों की भर्त्सना' करने वाले निर्मल वर्मा 'अंतत: आत्मनिष्ठ' प्रतीत होते है और उनकी टिप्पणी है, "हम सबके लिए यह दुखद अचरज की बात रही है कि ऐसा मत रखने वाला बुद्धिजीवी बुद्धिविरोधी शक्तियों का पक्षधर हो गया। यह ऐसा स्खलन था जो न तो समझ में आता है, न उसका बचाव किया जा सकता है सिवाय यह नोट करने के कि इस स्खलन से उनकी रचना मुक्त रही।"

इन संस्मरणों में जहां तहां कवियों और साहित्य पर अशोक वाजपेयी गहरी टिप्पणि करते हैं जो अक्सर उक्तियों की तरह मालूम होती हैं। ये टिप्पणियां उनके व्यापक अनभवों और विशद अध्ययन का प्रमाण हैं। जैसे-"नागार्जुन त्रिलोचन शमशेर में एक समानता अलबत्ता थी : उन्हें अपने कवि होने के कारण विशेष होने का रत्तीभर अहसास नहीं था। आम रोजमर्रा की जिंदगी में आम आदमी की तरह ही व्यवहार करते थे और अपनी धजा सजा का उन्हें कोई खयाल नहीं रहता था।" कवि राजनेता श्रीकांत वर्मा पर उन्होंने लिखा है, "वे हमेशा नरक के कवि रहेंगे जो हमें उजालों के झूठ, उम्मीदों के फरेब और सपनों के मायाजाल से सतर्क करते रहेंगे ताकि हम अपने दु:स्वप्न, नियति और नश्वरता को खली आंखों देख और झेल सकने का साहस जुटा पाएं। ऐसा नरक जो उतनी ही ईमानदारी से उन्होंने दूसरों पर थोपा नहीं। बीसवीं शताब्दी का अंधेरा जिन हिंदी लेखकों में है, उनमें वह श्रीकांत वर्मा के यहां शायद सबसे गाढ़ा और बेराहत है।"

पुस्तक का बड़ा भाग शास्त्रीय संगीत और चित्रकला के पुरोधाओं पर लिखे संस्मरणों का है। सचमुच यह हिंदी लेखन का कमजोर पक्ष है कि कलाओं और कलाकारों पर हिंदी में लिखने का चलन नहीं है। अशोक वाजपेयी भारत भवन और बाद में भी लगातार कलाओं के सक्रिय पक्षधर बने रहे हैं। उन्हें कलाओं और कलाकारों पर सरुचि लिखने के लिए भी जाना जाता है। यहां मल्लिकार्जुन मंसूर, कुमार गंधर्व, सैयद हैदर रजा, जगदीश स्वामीनाथन, हबीब तनवीर और ब. व. कारंत पर उनके संस्मरण गुजरे दौर के इन कला मूर्धन्यों के प्रति हार्दिक भावांजलि हैं। इन कलाकारों के व्यक्तित्व और इनकी मान्यताओं को समझने में वाजपेयी के संस्मरण काम के हैं। मंसूर जैसे बड़े गायक निजी जीवन में कितने सरल और निस्पृह थे यह जानना सचमुच सुखद है। इसी तरह चौंकाने वाली बात है कि भारत भवन के आयोजनों में कुमार गंधर्व की सक्रियता एक आयोजक या संस्थान के न्यासी के रूप में भी हो सकती थी। जगदीश स्वामीनाथन पर लिखते हुए वाजपेयी बहुत रम जाते हैं और उनके संबंधों की उष्मा साफ दिखाई देती है। दूसरी तरफ रजा साहब पर लिखा गया संस्मरण पुराना है और पाठक इसे स्वीकार करने में किंचित कठिनाई महसूस करता है। विभा कारंत कांड वह घटना थी जिसने भारत भवन की कीर्ति को खंडित किया। इसका आंशिक उल्लेख एक जगह हुआ है किंतु आश्चर्यजनक ढंग से कारंत पर लिखे संस्मरण में इस कांड का कोई जिक्र नहीं है।

जिस तनाव की चर्चा पुस्तक के पहले संस्मरण के संबंध में हुई थी लगभग उसी तनी हई रस्सी पर अशोक वाजपेयी तब भी चलते हैं जब वे अर्जुन सिंह पर लिखते हैं। एक तो पुरानी पीढ़ी के राजनेताओं पर लिखने में यह सुविधा थी कि स्वतंत्रता आंदोलन और राष्ट निर्माण के अवलंबन से उन पर लिखने का कोई नैतिक संशय न रह जाता था जबकि इधर के राजनेताओं पर लिखना सचमुच जोखिम की बात है।
इन संस्मरणों की भाषा पर भी अलग से बात की जा सकती है जिसमें सहज अभिव्यक्ति के साथ ऐसे प्रयोग हैं कि पाठक एक शिष्ट मुस्कराहट से भर जाए। गद्य में लालित्य के लिए उन्हें चलताऊ शब्दों और घिसे हुए अनुप्रासों की जरूरत नहीं लगती। वे अपनी गरिमापूर्ण अभिव्यक्ति को कमजोर क्षणों में भी कातर नहीं होने देते। कवियों का गद्य कहना भले पुरानी बात लगे लेकिन इन संस्मरणों की भाषा सचमुच प्रसन्न, जीवंत और भंगिमाओं से भरी है। जैसे हबीब तनवीर पर ये वाक्य देखिए, "उनका बहुत सारा सच उनके सपने से उपजा था और उनका सपना उनके बहुत सारे सच को अर्थ देता था। बाहर की दनिया में सचाई और सपने के बीच कितनी ही दूरी क्यों न रही हो, हबीब अपने रंगकर्म में इस दूरी को लांघ जाते थे। उसमें सच सपना हो जाता था, सपना सच हो जाता था।" संस्मरणों पर इधर आई अनेक पस्तकों में भाषा और प्रस्तुति की यह सुगढ़ता विरल ही है।

पुस्तक में अनेक प्रसंग ऐसे हैं जो अनेक बार आए हैं जैसे अस्पताल में मृत्यु शैया पर पडे मक्तिबोध का प्रसंग पुस्तक में अनेक बार आया है लेकिन भिन्न भिन्न व्यक्तियों के संदर्भो में एक प्रसंग कैसे भिन्न अर्थ छवियां देता है यह देखा जा सकता है। मुक्तिबोध की इस स्थिति में शमशेर को देखना अत्यंत कारुणिक है जो अपने मित्र और श्रेष्ठ कवि के लिए भावविभोर दिखाई देते हैं, श्रीकांत वर्मा के संबंध में यह समूचा प्रसंग एक और नयी छवि गढ़ता है तो अज्ञेय को अस्पताल में देखना भी भिन्न अनुभव ही है। कथेतर विधाओं में संस्मरण का वैशिष्ट्य भी इस प्रसंग में समझना चाहिए कि एक ही घटना या भाव को भिन्न भिन्न व्यक्तियों के प्रसंग में देखना कैसे पृथक और किंचित नया अनुभव होता है। बेहतर होता कि इसी पुस्तक में नामवर सिंह, रघुवीर सहाय, कुंवर नारायण, ज्ञानरंजन और विद्यानिवास मिश्र पर भी संस्मरण होते, जिनमें से कुछ के न होने का उल्लेख लेखक ने भूमिका में किया है। अच्छा ही है कि इन सबके लिखे जाने पर संस्मरणों की एक और पुस्तक संभव होगी। भूमिका में उन्होंने स्मृति को सृजन से जोड़ा है; कहना न होगा कि स्मृति का यह सृजन उजाला करता है और इधर की समूची निराशा में आशा के भूले हुए किसी द्वीप सरीखा लगता है। और यह कह देना भी किसी चालू रिवायत जैसा ही लगे तब भी कहना होगा कि पिछले पचास सालों के सांस्कृतिक परिदृश्य का ऐतिहासिक विवरण इस पुस्तक में आ गया है। स्वतंत्र भारत की सांस्कृतिक नीतियों और कार्रवाइयों के अध्ययन के लिए तो यह किताब अनिवार्य संदर्भ की तरह रहेगी।

अपने संस्मरणों में वाजपेयी का अपना व्यक्तित्व भी उभरता है। नेमिचंद्र जैन पर लिखते हुए उनके मार्क्सवादी आग्रहों का उल्लेख करते हैं और इस उल्लेख को पढ़ते हुए पाठकों को वाजपेयी की मार्क्सवाद के प्रति पुरानी तल्खियां याद आ सकती हैं। पुराने पाठक आलोचना में ऐसी एक परिचर्चा को यादकर निश्चय ही मुस्करा सकते हैं। कहना चाहिए कि समय के साथ वाजपेयी भी अपने आग्रहों पूर्वाग्रहों से आगे बढ़े हैं। एक और बात उनके प्रशासनिक अधिकारी होने से जुड़ी है। वाजपेयी को जानने वाले किसी भी पाठक को यह पुस्तक पढ़ने से पहले अंदेशा हो सकता है कि संस्मरणों के बहाने यहां लेखक कहीं अपनी उपलब्धियों का अंकन न करने लगे क्योंकि पूरी सावधानी के बावजूद तथ्यों की प्रस्तुति से वे बच नहीं सकते। ऐसे किसी प्रसंग से पहले वे जिस सावधान की मुद्रा में आते हैं वह दर्शनीय है और संस्मरण विधा में दिलचस्पी रखने वालों को उससे सीखना चाहिए। जैसे यह वाक्य, “किसी हिंदी प्रदेश में होने वाली सदी की सब से बडी और व्यापक सांस्कृतिक पहल का मैं लगभग कर्णधार बना।" यहां 'लगभग' का प्रयोग सचमुच उन्हें आत्मप्रशंसा के गहरे कुंड में गिरने से बचा ले जाता है। ऐसे ही अन्य प्रसंगों में वाजपेयी जी का भरसक प्रयत्न रहा है कि तथ्यों को क्षति पहुंचाए बिना बात कहते रहें और कहीं भी आत्मश्लाघा न हो। बहरहाल इन संस्मरणों में एक जिद्दी कलाप्रेमी और अपने संकल्पों में अडिग सांस्कृतिक उद्यमी को देखना अब दुर्लभ हा है क्योंकि जिस समय और समाज ने वाजपेयी जैसे लोगों के लिए यह संभव किया कि नए दौर में भी वे संस्कृति का उद्यम कर सकें वह समय और समाज अब नहीं है, सरकार तो बिलकुल भी नहीं।