Books
अशोक वाजपेयी की कविताएँ, विपुला च पृथ्‍वी.......(साभार ओम निश्चल की फेसबुक वॉल से)
संसार में कितनी तरह की कविताएं लिखी जाती हैं। देश काल परिस्थिति को छूती और कभी कभार उसके पार जाती हुई। कभी दुख कभी सुख कभी आह्लाद कभी विषाद कभी शोक कभी अपार भावविह्वलता से भरी कितनी तरह की कविताओं से हम आए दिन गुजरते हैं। हमारे हर क्षण के मनोविज्ञान से उलझती हुई, समय समाज और व्यवस‍था की विडंबनाओं को उधेड़ती हुई, सत्ता प्रतिष्ठानों को प्रश्नांकित करती हुई, प्रकृति के बियाबान में अपने लिए काव्य सौष्ठव के उपादान संजोती हुई और अपने कथ्य को विभिन्न अलंकरणों, रूपकों, उपमानों उपमेयों उत्प्रेक्षाओं और सौंदर्य के अंतस्तत्वों से निमज्जित करती हुई कितनी तरह की कविताओं से यह संसार भरा है। न कविता का लिखा जाना खत्म होता है न अपार भाव समुद्र जो हर वक्त लहराता ही मिलता है अपनी उत्ताल तरंगों में जीवन जगत के सौंदर्य और रहस्यों को समेटे हुए।

ऐसी ही भाव-तरंगों से टकराती हैं अशोक वाजपेयी की कविताएं जिनके अब तक दर्जनों कविता संग्रह आ चुके हैं। शहर अब भी संभावना है(1966) से लेकर कम से कम(2019) तक उनकी कविता ने एक सुदीर्घ यात्रा तय की है। इस दौरान उन्होंने आलोचनाएं भी बहुत लिखी हैं। अपने देश और काल के मुद्दों पर वैचारिक आलेख और गद्य भी। यों तो समय समय पर उनके चयन आते ही रहे हैं। इससे पहले उनका एक कविता चयन 'विवक्षा' प्रकाशित हुआ था तथा उनकी कविताओं के दो खंड भी आ चुके हैं। इस बार जब वे 80 के हो चुके हैं, उनके अब तक के कविता संसार को दो खूबसूरत खंडों में संजोया है सेतु प्रकाशन ने। इसी के साथ उनके स्‍वतंत्र रूप से व रेनाता चेकाल्स्का के साथ किए विदेशी कवियों की कविताओं के अनुवाद का एक तीसरा खंड भी इसी में शामिल है। याद है विश्व कविता समारोह के दौरान आए विदेशी कवियों के कविता चयन 'पुनर्वसु' ने विश्व के तमाम उल्लेखनीय कवियों को पहली बार इतने समादर के साथ भारतीय कविता के परिवेश और परिसर में जगह दी थी। इसी के साथ हिंदी कवियों के बीच विदेशी कवियों की पैठ बननी शुरू हुई। वे कवियों के अध्ययन कक्ष का अंग बने। ग्लोबलविलेज की अवधारणा बेशक बाद में आई पर कवियों का एक ग्लोबल समवाय पहले से ही बन चुका था। वैसे भी कविता ही है जो कोई सीमाएं नहीं मानती। अशोक वाजेपयी की कविता के पहले दोनों खंड उनके कवितावदान को समझने में सहायक हैं। यह भी कि अपने समकालीनों से उनका लेखन कमतर नहीं है। उनकी कविताओं का प्ररूप प्रारंभ में और बाद में भी प्राय: वैयक्तिक रहा है। निज के प्रक्षेपण उनके यहां प्रभावी रहे हैं। उन्होंने डूब कर प्रेम की कविताएं लिखी हैं तो अवसान, मृत्यु, पारिवारिकता और विलोपन की कविताएं भी कम न होंगी। उनकी कविताओं का सौंदर्यगत सौष्ठव पारंपरिक नहीं है, वह मुक्त छंद के स्थापत्य से संवलित है।
विदेशी कविताओं के विशद पठन पाठन ने न केवल अशोक वाजपेयी बल्कि उनके अनेक समकालीनों के चित्त को आकर्षित किया है। इस आकर्षण की मौजूदगी ऐसी कविताओं के स्‍थापत्य में कहीं न कहीं दिखती है। इसलिए जिस देशज अंदाज से आधुनिक हिंदी कवियों में त्रिलोचन बोलते हैं, नागार्जुन बोलते हैं, जिस प्रखर दो- टूक शब्दावली में केदारनाथ अग्रवाल बोलते हैं, जिस आधुनिक भारतीय भाषा संवेदना के साथ केदारनाथ सिंह बोलते हैं, जिस अंदाजेबयां के साथ राजेश जोशी लिखते हैं, जिस भाषाई वैभव के साथ ज्ञानेन्द्रपति बोलते हैं, अशोक वाजपेयी की कविता उससे कुछ अलग दिखती है। हालांकि उनकी कविताओं में भी भारतीय परिवेश की बारीकियां नजर आती हैं पर उसकी निर्मिति विदेशी कविता के ढॉंचे से मेल खाती है। वह कवि की चित्तवृत्ति को एक अलग भाव संप्रेषण में पर्यवसित करती है। यहां तक कि ऐसी कविताओं में कभी कभी देश काल भी बहुत मुखर होकर बोलता नहीं दिखता। कविता शाश्वत अभिव्यक्ति सी लगती है किसी भी देश काल परिस्थिति से मुक्त आख्यान रचती हुई। वहां समकालीनता की आवधिकता बहुत दृश्यमान नहीं होती।
तथापि अशोक वाजपेयी की कविता का संसार बहुत लुभावना है। पद प्रत्यय बहुत मनोहारी हैं। देवता, नक्षत्र, प्रकृति, पृथ्वी, आकाश, प्रतीक्षा, कामना, उम्मीद, हताशा जैसे प्रत्यय कविताओं में बार बार आते हैं। उनकी प्रेम कविताओं का स्थापत्य तो इतना सुगठित और कमनीय लगता है जैसे किसी गीत के पद को तोड़ कर लिख दिया गया हो। उससे एक स्नेहिल आभा आलोकित होती हुई दिखती है। चूँकि कविता का काम केवल रमणीयार्थ प्रतिपादक की ही साधना नहीं हैं, उसमें अपने बीहड़ समय की पुकार को भी सुनने का माद्दा होना चाहिए ---अशोक जी के यहां यह पुकार न तो मुक्तिबोध जैसी है, न विनोद कुमार शुक्ल जैसी। वह वैसी कलावादी भी नहीं है जिसके लिए वे सुख्यात या कुख्यात रहे हैं। उनके कवि ने अपनी निजता के लोकतंत्र की रक्षा भी की तथा धीरे धीरे अपने उत्तर जीवन में समाज के सुख दुख में शामिल होने की चरितार्थता भी कायम की।

गुजरात त्रासदी के समय से ही उनके कवि ने करवट बदली तथा अपने ही कविता कवच को तोड़ते हुए उसके सामाजिक प्रतिपाद्य को समझने की कोशिश की। तत्काल तो नहीं पर कुछ समय बाद इसका प्रतिफल उनकी कविताओं में दिखने भी लगा। इससे पहले वह सत्ता से टकराती हुई नजर नहीं आती। वह मानवीय व नियति के प्रश्नों से टकराती है पर एक खास भाषायी अध्यात्म रचते हुए। उसमें निज की सांसारिक प्रवृत्तियॉं ज्यादा हावी दिखती थीं। 'दुख चिट्ठीरसा है' से उनकी कविता देश काल के गवाक्ष से सत्‍ता के चरित्र का उन्मीलन करती है तथा उत्तरोत्तर कवि के कार्यभार उठाती हुई 'कहीं कोई दरवाजा', 'नक्षत्रहीन समय में' व 'कम से कम" में अपने राजनीतिक बोध और प्रतिरोध का सांकेतिक निर्वचन करती हुई दिखती है। अपने विचारों में तो वे पिछले डेढ़ दशक से सत्ता के सांप्रदायिक चरित्र से टकराते रहे हैं पर कविताओं में राजनीतिक चेतना उस तरह से छन कर नहीं आती कि वह किसी वैचारिक एजेंडे से परिचालित दिखे। पर बिना लाउड हुए कविता में शाइस्तगी से वह सब कह देना कि कवि का असली मंतव्य समझ में आ जाए, वैसा उनकी उत्तरवर्ती कविताओं में स्पष्ट दिखता है।
अशोक वाजपेयी की कविताएं शुरु से ही पढ़ता रहा हूँ। उनकी भाषा-संवेदना और कथ्य के निरूपण में आधुनिकता दिखती है। इस वजह से वह ध्यानाकर्षी बन जाती है। अब जब सारी कविताएं पुन: दो प्रशस्त खंडों में समाविष्ट होकर प्रकाशित हैं ---उनके अद्यतन कविता संसार को कविता की कसौटियों के साथ विवेचित करने में आसानी होगी। उन्हें समझने की राहें प्रशस्त होंगी इसमें संदेह नहीं। सेतु प्रकाशन ने सर्वथा शुद्धता के साथ इसे प्रकाशित किया है यह देख कर बची खुची प्रकाशकीय गरिमा के प्रति आश्वस्ति होती है।